टाइप 2 डायबिटीज़ में हुए अनेक शोधों से यह पता चला है कि यदि इस मर्ज का शुरुआती वर्षों में सही तरीके से टार्गेट आधारित सफल ईलाज किया जाये तो लम्बे समय तक फायदे बने रहते हैं। दरअसल टाइप 2 डायबिटीज़ रातों-रात नहीं होती। अधिकांश केसेज़ में सबसे पहले इन्सुलिन हाॅर्मोन की सक्रियता में कमी आती है जिसकी वजह से पैन्क्रियाज़ पर अधिक इन्सुलिन बनाने का दबाव होता है। कुछ वर्षों तक पैन्क्रियाज़ की इन्सुलिन बनाने वाली बीटा सेल्स अधिक कार्य करती है और शुगर को नार्मल रखने में सफल भी होती है। अधिक कार्य करते-करते जब बीटा सेल्स थक जाती है तो इन्सुलिन की आवश्यक मात्रा नहीं निकाल पाती और शुगर बढ़ने लगती है अर्थात डायबिटीज़ हो जाती है।
शुरुआत में सही तरीके से ईलाज का अर्थ है – थकी हुई बीटा सेल्स को पुनः कार्य करने योग्य बनाना। इसीलिये यदि डायग्नोसिस पर शुगर बहुत अधिक बढ़ कर आये तो अमेरिकन डायबिटीज़ एसोसियशन द्वारा कुछ सप्ताह या महिनों के लिये इन्सुलिन लेने की सलाह दी जाती है। इन्सुलिन पैन्क्रियाज़ में बनने वाला हाॅर्मोन है और यदि इसकी पूर्ति कुछ समय के लिये बाहर से कर दी जाये तो बीटा सेल्स को आराम मिलता है और वे पुनः इन्सुलिन बनाने में सक्षम हो सकती है।
टाइप 2 डायबिटीज के इलाज के लिये कुछ दवाइयाँ ऐसी है जो बीटा सेल्स से इन्सुलिन निकालती है। शुरुआत में यदि थकी हुई बीटा सेल्स से अधिक कार्य कराया जाये तो शुगर कन्ट्रोल हो जाती है लेकिन इन दवाइयों से भविष्य में बीटा सेल्स की क्षमता कम हो सकती है। वहीं अनेक दवाइयाँ इन्सुलिन की सक्रियता बढ़ा कर बीटा सेल्स की लाइफ को बढ़ाती है। यदि डायग्नोसिस के समय से इन्सुलिन की सक्रियता को दवा एवम् एक्सरसाइज़ से बढ़ाया जाये तो इसके लाभ लम्बे समय तक बने रहते हैं। डायबिटीज़ के प्रथम 10 वर्ष गोल्डन पीरियड है। इस समय अपनी सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा करें, यही वह फार्मुला है जिससे डायबिटीज़ के साथ स्वस्थ रहा जा सकता है।